जीवन के मकड़जाल में....... ऐसा फंसा कि फँसता चला गया। कभी उदर पूर्ति के लिये, कभी बच्चों के सपनों के लिये, कभी अपनों के लिए बस बुनता ही चला गया। इस छोर से उस् छोर, उस छोर से इस छोर तक अनन्त तक बस बुनना ही, बुनना। अचानक उस छोर से जिन्दगी को देखता हूँ तो, नन्हें बच्चे कब बड़े हो गये, पत्नि के केशों का रंग कब उड़ गया, पता ही नहीं चल।। पता ही नहीं चल।।
जीवन के मकड़जाल में ऐसा फँसा कि फँसता ही चला गया। कब नन्हीं बच्ची इंजिनियर हो गई, एक को प्रारब्ध ने जकड़ लिया, एक नन्हा ही रह गया.... साधन सम्पन्न एक 'रौबिल।' उद्योगपति, कब सरकारी 'दब्बू' हो गया। पता ही नहीं चल।। पता ही नहीं चला।
जीवन के इस मकड़जाल में ऐसा फंसा कि फँसता ही चला गया। 'प्रारब्ध' की जकड़ता को हटाने में, स्त्रीधन भी दांव पर लग गया, ऋणता की भेंट चढ़ते-चढ़ते, दिशावान दिशाहीन हो गया। लोग कब कतराने लगे, पता ही नहीं चला। पता ही नहीं चल।।
जीवन के मकड़जाल में ऐसा फंसा कि फंसता ही चला गया। वंश भी पूछता है अब, आखिर जीवन में किया क्या ऋणता के सिवा, तब जागृत हो गया मौन, फिर उड़ गई रातों की नींद, पर सोचा 'कपाल' तो यही करेंगे। सत्य तो यही है, सब दांव पर लगा वंश के अंश में, जो दौड़ रहा है वही है जो लगाया था दांव पर मैंने सब कुछ, हरी-भरी खुशहाल जिन्दगी, कब प्रवाह बन गई, पता ही नहीं चला। पता ही नहीं चला।
जिन्दगी के मकड़जाल में ऐसा फंसा कि फंसता ही चला गया। खुद के बुने इस जाल में ऐसा फंसा कि, उसमें ही फंसा रह गया। जीवन के मकड़जाल में ऐसा फंसा कि फंसा रहा गया, फंसा रह गया।
उक्त लेख अशोक कुमार गर्ग (9784619787), सेवानिवृत कार्यालय अधीक्षक शिक्षा विभाग अजमेर द्वारा लिखा गया है।
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