Friday, March 31, 2023

बाद रंजिश के गले मिलते हुए रुकता है दिल, अब मुनासिब यही कुछ मैं बढूं कुछ तुम बढ़ो- रमेश अग्रवाल

 सन्दर्भ: राइट टू हैल्थ बिल



बाय: डॉ  रमेश  अग्रवाल 

सब जानते हैं कि दवा भी यदि किसी मरीज को जरूरत से ज्यादा मात्रा में दी जाये तो उसके लिये यह जहर का काम करने लगती है। इसमें कोई दो राय नहीं कि मुख्यमंत्री अशोक गहलोत नें अपने ताजा दो कार्यकाल के दौरान स्वास्थ्य के क्षेत्र में जो कार्य किया है वह युगों के लिये मील का पत्थर साबित होगा। पहले निशुल्क दवा योजना, फिर निशुल्क जांच, फिर चिरंजीवी और आर.जी.एच.एस. योजना। मगर जल्दबाजी में बनाये गये राइट टू हैल्थ बिल ने जबसे सरकार की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं के अतिरेक को उजागर किया है, प्रदेश की बनी बनाई सेहत गड़बड़ाती नजर आ रही है। पिछले 12 दिन के दौरान राज्यभर में सैंकड़ों दुर्भाग्यशाली बच्चों और बड़ों ने डाक्टरों की हड़ताल को अपनी बलि दे दी है जिसके लिये डाक्टरों और निजी अस्पतालों को भी बाइज्जत बरी नहीं किया जा सकता।

सरकार यदि आम आदमी को स्वास्थ्य का अधिकार देना चाहती है तो इसमें कुछ गलत नहीं है तथा अस्पतालों और डाक्टरों को इसका विरोध करने का कोई अधिकार भी नहीं है मगर सरकार को चाहिये कि वह सरकारी अस्पतालों की दशा सुधार कर, वहां अधिक से अधिक जांच व उपचार की सुविधाएं बढ़ा कर, वहां सामान्य से लेकर सुपरस्पेश्यलिटी तक के डाक्टरों के खाली पद भर कर तथा सरकारी अस्पतालों की संख्या बढ़ा कर आम आदमी तक यह अधिकार पहुंचाये। गुणवत्ता में निजी क्षेत्र से स्वस्थ प्रतिस्पर्धा करने के स्थान पर सरकार निजी क्षेत्र में जमे जमाये, बेहतर व्यवस्था वाले अस्पतालों को सरकारी जैसा बना कर आम आदमी की तालियां क्यों लूटना चाह रही है। 

दूसरी तरफ निजी चिकित्सकों एवं अस्पतालों का यह तर्क भी पूरी तरह से मान्य नहीं हो सकता कि निजी चिकित्सालय अन्य सभी निजी क्षेत्र के व्यवसायों की तरह ही एक स्वतंत्र व्यापार है तथा इसे सेवा नहीं समझा जाना चाहिये। इसमें कुछ गलत नहीं कि डाक्टर और अस्पताल निर्माता भी प्रतिस्पर्धा के दौर में ज्यादा मेहनत करके ज्यादा पैसा कमायें मगर मानव जीवन से जुड़े इस व्यवसाय को पैसे के साथ साथ जो सम्मान और श्रद्धा अतिरिक्त बोनस के रूप में प्राप्त हैं उसे देखते हुए क्या चिकित्सक अपने आपको गुटखा और शराब बनाने वाले निजी क्षेत्र के व्यवसायियों के समकक्ष रखना चाहेंगे? चिकित्सकों को भी चाहिये कि वे आम आदमी के ह्रदय में उनके लिये बनी धरती के भगवान की छवि को टूटने न दें। 

आमजन के हित में यह गतिरोध तुरन्त टूटना चाहिये मगर इसके लिये दोनों ओर से पहले जरूरी है। सरकार यदि आम आदमी को राइट टू हैल्थ देना चाहती है तो चिकित्सक इसमें सहयोग करें। रोगी को उसके रोग की जानकारी व अनुमानित व्यय आदि की विस्तृत जानकारी देने के प्रावधान कत्तई गलत नहीं हैं। दुर्घटना अथवा आपात स्थिति में रोगी को तात्कालिक उपचार देने की व्यवस्था पहले से कानून में है किन्तु किसी भी श्रेणी के निजी अस्पताल में अकस्मात पहुंचे रोगी को रेफर करने व एम्बुलेन्स आदि की व्यवस्था करने की जिम्मेदारी अस्पताल पर डालना तर्कसंगत नहीं है। इमरजेन्सी की परिभाषा भी स्पष्ट होनी चाहिये। 

निजी अस्पतालों पर मनमाने तरीके से जुर्माने की तलवार लटका कर उन्हें दबाव में रखना स्वयं उनके अधिकारों पर कुठाराघात है। सरकारी योजनाओं के तहत सभी निजी अस्पतालों के शुल्क को एक पैमाने से तय किया जाना भी ठीक नहीं। प्रदेश सरकार ने चिरंजीवी योजना में खर्च की सीमा बढ़ा कर अब 25 लाख रुपये कर दी है। सरकार चाहे तो यह व्यवस्था भी कर सकती है कि रोग के अनुसार रोगी को निजी अस्पताल में इलाज के लिये सरकार की ओर से सब्सिडी की राशि निर्धारित कर दी जाये। यदि कोई रोगी अस्पताल के वाजिब शुल्क का अन्तर स्वयं वहन करने को तैयार हो तो वह अपनी पसंद के निजी अस्पताल में जाये वरना सरकारी अस्पताल में ही उपचार कराये। निजी चिकित्सकों के हितों का पूरी तरह दमन करके यदि कोई व्यवस्था लागू की गई तो निश्चित रूप से न सिर्फ योग्य चिकित्सक एवं निवेषक प्रदेश से पलायन पर मजबूर होंगे बल्कि भविष्य में रोगी और चिकित्सकों के पारस्परिक सम्बन्ध भी प्रभावित होंगे।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण) : इस आलेख में व्यक्त किए गए विचार वरिष्ठ पत्रकार (रमेश अग्रवाल) के निजी विचार हैं। इस आलेख में दी गई किसी भी सूचना की सटीकता, संपूर्णता, व्यावहारिकता अथवा सच्चाई के प्रति AYN उत्तरदायी नहीं है। इस आलेख में सभी सूचनाएं ज्यों की त्यों प्रस्तुत की गई हैं। इस आलेख में दी गई कोई भी सूचना अथवा तथ्य अथवा व्यक्त किए गए विचार AYN के नहीं हैं, तथा AYN उनके लिए किसी भी प्रकार से उत्तरदायी नहीं है।

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